रायगढ़ जिले के तमनार तहसील अंतर्गत ग्राम पंचायत सराईटोला के आश्रित ग्राम मुडागांव में अदानी समूह द्वारा शुरू की गई जंगल कटाई ने एक बार फिर पर्यावरण और आदिवासी अधिकारों के मुद्दे को गरमा दिया है। इस कटाई के लिए सैकड़ों पुलिस बल की तैनाती की गई है, और आरोप है कि स्थानीय आदिवासियों को उनके घरों में कैद कर जंगल काटा जा रहा है। यह घटनाक्रम तब और विवादास्पद हो गया, जब एक दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के वित्त मंत्री ओपी चौधरी ने तमनार में “एक पेड़ माँ के नाम” अभियान के तहत पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया था। स्थानीय आदिवासियों ने उनका स्वागत किया था, लेकिन अगले ही दिन जंगल कटाई की खबर ने उनके इस संदेश को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
मुडागांव में जंगल कटाई और पुलिस की भूमिका
जानकारी के अनुसार, मुडागांव में अदानी समूह की एक परियोजना के लिए बड़े पैमाने पर जंगल कटाई शुरू की गई है। इस कार्य के लिए भारी पुलिस बल तैनात किया गया है, और स्थानीय लोगों का आरोप है कि उन्हें उनके घरों में नजरबंद कर दिया गया है ताकि वे कटाई का विरोध न कर सकें। ग्रामीणों का कहना है कि यह जंगल उनकी आजीविका, संस्कृति और पर्यावरण का आधार है, जिसे बिना उनकी सहमति के नष्ट किया जा रहा है।

आदिवासियों का कहना है कि जंगल कटाई न केवल उनके पारंपरिक जीवन को प्रभावित कर रही है, बल्कि क्षेत्र की जैव-विविधता को भी भारी नुकसान पहुंचा रही है। एक स्थानीय आदिवासी ने कहा, “हमारे जंगल हमारी माँ हैं। इन्हें काटना हमारे अस्तित्व पर हमला है। हमें घरों में कैद कर जंगल काटा जा रहा है। यह कैसा रामराज्य है?”

अदानी और जिंदल का प्रभाव
आदिवासियों का आरोप है कि तमनार का सब कुछ “अदानी और जिंदल के नाम” लिख दिया गया है। क्षेत्र में अदानी समूह और जिंदल समूह की परियोजनाएँ लंबे समय से चर्चा में रही हैं। स्थानीय लोग दावा करते हैं कि इन औद्योगिक समूहों के हितों के लिए उनकी जमीन और जंगल छीने जा रहे हैं। हसदेव अरण्य के परसा कोल ब्लॉक में पहले भी ऐसी कटाई का विरोध हो चुका है, जहाँ अदानी समूह पर फर्जी ग्राम सभा प्रस्तावों के आधार पर कटाई शुरू करने का आरोप लगा था।

मुडागांव के मामले में भी ग्रामीणों का कहना है कि उनकी सहमति के बिना यह कटाई शुरू की गई है। एक आदिवासी महिला ने कहा, “हमारी ग्राम सभा की राय को नजरअंदाज किया गया। हमें न तो सूचना दी गई, न ही हमारी बात सुनी गई।”

आदिवासियों में आक्रोश
आदिवासी समुदाय इस घटना को अपनी संस्कृति और आजीविका पर हमला मान रहा है। उनका कहना है कि जंगल उनके जीवन का आधार हैं, और इन्हें काटने से उनकी आजीविका, जल स्रोत और पारंपरिक प्रथाएँ खतरे में पड़ जाएँगी। एक आदिवासी कार्यकर्ता ने कहा, “हमारे पूर्वजों ने इन जंगलों को संरक्षित किया। अब हमें घरों में कैद कर हमारी विरासत छीनी जा रही है। यह कैसा रामराज्य है, जहाँ आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है?”
हसदेव अरण्य में 2024 में हुई जंगल कटाई के विरोध की तरह, मुडागांव में भी स्थानीय लोग संगठित होकर विरोध की योजना बना रहे हैं। तब पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प में कई लोग घायल हो गए थे। इस बार भी भारी पुलिस बल की मौजूदगी से तनाव बढ़ने की आशंका है।
सरकार और अदानी समूह का रुख
अदानी समूह ने अभी तक इस मामले पर कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है। समूह पहले भी दावा करता रहा है कि उनकी परियोजनाएँ पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हैं और सतत विकास को बढ़ावा देती हैं। दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ सरकार ने भी इस कटाई पर कोई स्पष्ट टिप्पणी नहीं की है। हसदेव अरण्य मामले में सरकार और अदानी पर फर्जी प्रस्तावों के आधार पर कटाई शुरू करने का आरोप लगा था, जिसे राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग ने भी स्वीकार किया था।

पर्यावरण और आदिवासी अधिकारों पर सवाल
यह घटना एक बार फिर विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच टकराव को उजागर करती है। तमनार का क्षेत्र जैव-विविधता से समृद्ध है, और यहाँ के जंगल कार्बन अवशोषण, जल संरक्षण और आदिवासी संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण हैं। पर्यावरणविदों का कहना है कि ऐसी कटाई से न केवल स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान होगा, बल्कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ भारत की प्रतिबद्धताएँ भी प्रभावित होंगी।

आदिवासी अधिकार कार्यकर्ताओं ने इस कटाई को वन अधिकार अधिनियम 2006 का उल्लंघन बताया है, जो आदिवासियों को उनकी पारंपरिक जमीन और जंगलों पर अधिकार देता है।
आगे की राह
मुडागांव में जंगल कटाई के खिलाफ आदिवासी समुदाय और स्थानीय संगठन विरोध प्रदर्शन की तैयारी कर रहे हैं। कुछ कार्यकर्ताओं ने कानूनी कार्रवाई की बात भी कही है। दूसरी ओर, यह देखना होगा कि छत्तीसगढ़ सरकार और अदानी समूह इस विवाद को कैसे संभालते हैं। क्या सरकार इस कटाई को रोकने के लिए कदम उठाएगी, या यह परियोजना बिना रुकावट जारी रहेगी?

यह घटना न केवल रायगढ़, बल्कि पूरे देश में पर्यावरण और आदिवासी अधिकारों के मुद्दे पर बहस को तेज कर सकती है। स्थानीय लोग इसे “रामराज्य” के दावों के खिलाफ एक चुनौती के रूप में देख रहे हैं, और इस पर सरकार का रुख इस क्षेत्र के भविष्य को तय करेगा।